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09 August, 2010

सुन ले

ओ ठोकर !
तू सोच रही
मैं बैठ जाऊंगी
रोकर,
भ्रम है तेरा
चल दूंगी मैं
फ़ौरन
तत्पर होकर।

ओ पहाड़!
कितना भी टूटे
हंस ले खेल बिगाड़,
मैं भी मैं हूं
नहीं समझ लेना
मुझको खिलवाड़।

ओ बिजली !
तूने सोचा
यूं मर जाएगी
तितली,
बगिया जल जाएगी
तितली रह जाएगी इकली।
कुछ भी कर ले
पंख नए
भीतर से उग आएंगे,
देखेगी तू
नन्हीं तितली
फिर उड़ान पर निकली।

ओ तूफ़ान !
समझता है
हर लेगा मेरे प्रान,
तिनका तिनका बिखराकर
कर देगा लहूलुहान !
इतना सुन ले
कर्मक्षेत्र में
जो असली इंसान,
उन्हें डिगाना
अपने पथ से
नहीं बहुत आसान।

ओ आंधी !
तूने भी
दुष्चक्रों की खिचड़ी रांधी,
जितना भैरव-नृत्य किया
मेरी जिजीविषा बांधी।
परपीड़ा सुख लेने वाली
तू भी इतना सुन ले
मेरे भी अंदर जीवित हैं
युग के गौतम-गांधी।

अरी हवा !
तू भी चाहे तो
दिखला अपना जलवा,
भोले नन्हें पौधे पर
मंडरा बन मन का मलवा।
कितनी भी प्रतिकूल बहे
पर इतना तू भी
सुन ले-
पुन: जमेगा
इस मिट्टी में
तुलसी का ये बिरवा।

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