आह्लादित हूँ, गर्वित हूँ
बेटी तुमको पाकर अभिमानित हूँ-
तुमको पाकर पाया मैंने एक अनूठा विश्वास
हर रिश्ते के मूल में तुम्हीं तो थी खड़ी
कभी दादी बन दुलराया तुमने
कभी माँ बन समझाया तुमने
कभी करी सखी समान ठिठोली
अगले ही पल थी तुम बिंदास पहेली
कभी तन खड़ी होती तुम बन सुदृढ़ दीवार
कभी बन जाती तुम बरगद की शीतल छाँह
कभी तुम लगती सावन की पहली फुहार
कभी शीत की सलोनी धूप सी,
कभी फागुन की मीठी बयार,
कभी तुम एहसास दिलाती-
'हाँ मैं भी हूँ कुछ खास '
कभी बन रौनक त्यौहार की
कर देती घर गुलज़ार
कभी बन टीस उतर जाती तुम दिल में
न जाने कितने दिन का साथ
बन सपना पलती आँखों में
सराबोर कर जाती मन
हर पल कुछ होता खास
तुम में पाया बचपन अपना
तुम में पाया अल्हड़पन
हर पल तुममें जिया खुद को
हर पल तुममे पाया खुद को
तुम हो मेरी प्रतिकृति
तुम हो मेरी अनुकृति
आह्लादित हूँ, गर्वित हूँ,
बेटी तुमको पाकर मै अभिमानित हूँ ।
05 August, 2010
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grt words ! acchi kavita hai !
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