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Now you are going to enter the world of suspence........

Do you think, does the god exist ?

RINI

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14 August, 2010

09 August, 2010

I Cannot Change

I Cannot Change

I cannot change the way I am,
I never really try,
God made me different and unique,
I never ask him why.
If I appear peculiar,
There's nothing I can do,
You must accept me as I am,
As I've accepted you.
God made a casting of each life,
Then threw the old away,
Each child is different from the rest,
Unlike as night from day.
So often we will criticize,
The things that others do,
But, do you know, they do not think,
The same as me and you.
So God in all his wisdom,
Who knows us all by name,
He didn't want us to be bored,
That's why we're not the same.

अरे उतावले!!

ओ घोड़ी पर बैठे दूल्हे क्या हँसता है!!
देख सामने तेरा आगत मुँह लटकाए खड़ा हुआ है .
अब हँसता है फिर रोयेगा ,
शहनाई के स्वर में जब बच्चे चीखेंगे.
चिंताओं का मुकुट शीश पर धरा रहेगा.
खर्चों की घोडियाँ कहेंगी आ अब चढ़ ले.
तब तुझको यह पता लगेगा,
उस मंगनी का क्या मतलब था,
उस शादी का क्या सुयोग था.

अरे उतावले!!
किसी विवाहित से तो तूने पूछा होता,
व्याह-वल्लरी के फूलों का फल कैसा है.
किसी पति से तुझे वह बतला देगा,
भारत में पति-धर्म निभाना कितना भीषण है,
पत्नी के हाथों पति का कैसा शोषण है.

ओ रे बकरे!!
भाग सके तो भाग सामने बलिवेदी है.
दुष्ट बाराती नाच कूद कर,
तुझे सजाकर, धूम-धाम से
दुल्हन रुपी चामुंडा की भेंट चढाने ले जाएँगे.
गर्दन पर शमशीर रहेगी.
सारा बदन सिहर जाएगा.
भाग सके तो भाग रे बकरे,
भाग सके तो भाग.

ओ मंडप के नीचे बैठे मिट्टी के माधो!!
हवन नहीं यह भवसागर का बड़वानल है.
मंत्र नहीं लहरों का गर्जन,
पंडित नहीं ज्वार-भाटा है.
भाँवर नहीं भँवर है पगले.
दुल्हन नहीं व्हेल मछली है.
इससे पहले तुझे निगल ले,
तू जूतों को ले हाथ में यहाँ से भग ले.
ये तो सब गोरखधंधा है,
तू गठबंधन जिसे समझता,
भाग अरे यम का फंदा है.

ओ रे पगले!!
ओ अबोध अनजान अभागे!!
तोड़ सके तो तोड़ अभी हैं कच्चे धागे.
पक जाने पर जीवन भर यह रस्साकशी भोगनी होगी.
गृहस्थी की भट्टी में नित कोमल देह झोंकनी होगी.

अरे निरक्षर!!
बी. ए., एम. ए. होकर भी तू पाणी-ग्रहण
का अर्थ समझने में असफल है.
ग्रहण ग्रहण सब एक अभागे.
सूर्य ग्रहण हो, चन्द्र ग्रहण हो,
पाणी ग्रहण हो.
ग्रहण ग्रहण सब एक अभागे.
तो तोड़ सके तो तोड़ अभी हैं कच्चे धागे
और भाग सके तो भाग यहाँ से जान छुड़ाके.

जिए जा रहा हूँ मैं

दाल-रोटी दी तो दाल-रोटी खा के सो गया मैं
आँसू दिये तूने आँसू पिए जा रहा हूँ मैं
दुख दिए तूने मैंने कभी न शिक़ायत की
जब सुख दिए सुख लिए जा रहा हूँ मैं
पतित हूँ मैं तो तू भी तो पतित पावन है
जो तू करा ता है वही किए जा रहा हूँ मैं
मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाउंगा
तूने कहा जिए जा तो जिए जा रहा हूँ मैं

सुन ले

ओ ठोकर !
तू सोच रही
मैं बैठ जाऊंगी
रोकर,
भ्रम है तेरा
चल दूंगी मैं
फ़ौरन
तत्पर होकर।

ओ पहाड़!
कितना भी टूटे
हंस ले खेल बिगाड़,
मैं भी मैं हूं
नहीं समझ लेना
मुझको खिलवाड़।

ओ बिजली !
तूने सोचा
यूं मर जाएगी
तितली,
बगिया जल जाएगी
तितली रह जाएगी इकली।
कुछ भी कर ले
पंख नए
भीतर से उग आएंगे,
देखेगी तू
नन्हीं तितली
फिर उड़ान पर निकली।

ओ तूफ़ान !
समझता है
हर लेगा मेरे प्रान,
तिनका तिनका बिखराकर
कर देगा लहूलुहान !
इतना सुन ले
कर्मक्षेत्र में
जो असली इंसान,
उन्हें डिगाना
अपने पथ से
नहीं बहुत आसान।

ओ आंधी !
तूने भी
दुष्चक्रों की खिचड़ी रांधी,
जितना भैरव-नृत्य किया
मेरी जिजीविषा बांधी।
परपीड़ा सुख लेने वाली
तू भी इतना सुन ले
मेरे भी अंदर जीवित हैं
युग के गौतम-गांधी।

अरी हवा !
तू भी चाहे तो
दिखला अपना जलवा,
भोले नन्हें पौधे पर
मंडरा बन मन का मलवा।
कितनी भी प्रतिकूल बहे
पर इतना तू भी
सुन ले-
पुन: जमेगा
इस मिट्टी में
तुलसी का ये बिरवा।

परदे हटा के देखो

ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।

लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।

चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।

नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।

अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।

इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।

ऐ प्रभाकर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।

08 August, 2010

Hosla to de,

Manzil na de charag na de hosla to de,
tinke ke ka hi sahi tu magar aasara to de.

Maine ye kab kaha ke mere haq me ho jawaab,
lekin khamosh kyun hey tun koi faisla to de.

Barson mein tere naam par khata raha fareb,
mere khuda kahan hai tun apna pata to de.

Beshak mere naseeb par rakh apna ekhtiyar,
lekin mere naseeb main kya hai bata to de

जिन्दगी ये किस मोड पे ले आयी है

जिन्दगी ये किस मोड पे ले आयी है,

ना माँ, बाप, बहन, ना यहाँ कोई भाई है.
हर लडकी का है Boy Friend, हर लडके ने Girl Friend पायी है,
चंद दिनो के है ये रिश्ते, फिर वही रुसवायी है.

घर जाना Home Sickness कहलाता है,
पर Girl Friend से मिलने को टाईम रोज मिल जाता है.
दो दिन से नही पुछा मां की तबीयत का हाल,
Girl Friend से पल-पल की खबर पायी है,
जिन्दगी ये किस मोड पे ले आयी है…..

कभी खुली हवा मे घुमते थे,
अब AC की आदत लगायी है.
धुप हमसे सहन नही होती,
हर कोई देता यही दुहाई है.

मेहनत के काम हम करते नही,
इसीलिये Gym जाने की नौबत आयी है.
McDonalds, PizaaHut जाने लगे,
दाल-रोटी तो मुश्किल से खायी है.
जिन्दगी ये किस मोड पे ले आयी है…..

Work Relation हमने बडाये,
पर दोस्तो की संख्या घटायी है.
Professional ने की है तरक्की,
Social ने मुंह की खायी है.
जिन्दगी ये किस मोड पे ले आयी है

मुक्ति

चिडि़या को लाख समझाओ

कि पिंजड़े के बाहर

धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,

वहॉं हवा में उन्‍हें

अपने जिस्‍म की गंध तक नहीं मिलेगी।

यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,

पर पानी के लिए भटकना है,

यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।

बाहर दाने का टोटा है,

यहॉं चुग्‍गा मोटा है।

बाहर बहेलिए का डर है,

यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्‍वर है।

फिर भी चिडि़या

मुक्ति का गाना गाएगी,

मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,

पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,

हरसूँ ज़ोर लगाएगी

और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

अब तो पथ यही है

जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |

कब वक़्त मिला

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला

05 August, 2010

बेटी

आह्लादित हूँ, गर्वित हूँ
बेटी तुमको पाकर अभिमानित हूँ-
तुमको पाकर पाया मैंने एक अनूठा विश्वास
हर रिश्ते के मूल में तुम्हीं तो थी खड़ी
कभी दादी बन दुलराया तुमने
कभी माँ बन समझाया तुमने
कभी करी सखी समान ठिठोली
अगले ही पल थी तुम बिंदास पहेली
कभी तन खड़ी होती तुम बन सुदृढ़ दीवार
कभी बन जाती तुम बरगद की शीतल छाँह
कभी तुम लगती सावन की पहली फुहार
कभी शीत की सलोनी धूप सी,
कभी फागुन की मीठी बयार,
कभी तुम एहसास दिलाती-
'हाँ मैं भी हूँ कुछ खास '
कभी बन रौनक त्यौहार की
कर देती घर गुलज़ार
कभी बन टीस उतर जाती तुम दिल में
न जाने कितने दिन का साथ
बन सपना पलती आँखों में
सराबोर कर जाती मन
हर पल कुछ होता खास
तुम में पाया बचपन अपना
तुम में पाया अल्हड़पन
हर पल तुममें जिया खुद को
हर पल तुममे पाया खुद को
तुम हो मेरी प्रतिकृति
तुम हो मेरी अनुकृति
आह्लादित हूँ, गर्वित हूँ,
बेटी तुमको पाकर मै अभिमानित हूँ ।

Follow your heart

Follow your heart with no doubt. If it's right, you'll succeed. If it's wrong, you'll learn.

04 August, 2010

एक दिन चाहूंगा

सुदूर कामना
सारी ऊर्जाएं
सारी क्षमताएं खोने पर,
यानि कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूंगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया
कि तू डर जाए।)

हां उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूंगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूंगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूंगा।

क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूंगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूंगा
उंगलियों से।

झुर्रियों से ज़्यादा
ख़ूबियां होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उंगलियां कांपने लगेंगी
अंगूठा थक जाएगा।

फिर मन-मन में गिनूंगा
पूरे महीने गिनता रहूंगा
बहुत कम सोउंगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आंसुओं से रोऊंगा।

एक महीना
हालांकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूंगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूंगा
तेरी एक-एक याद।

आस्तिक हो जाऊंगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूंगा
और ढोऊंगा
फालतू जीवन का साक्षात् बोझ
हर पल तीसों रोज़।

इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउंगा
क़लम नहीं छूउंगा
अख़बार नहीं पढूंगा
संगीत नहीं सुनूंगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाउंगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाउंगा।