मेरी बेटी बनती है
मैडम
बच्चों को डाँटती जो दीवार है
फूटे बरसाती मेज़ कुर्सी पलंग पर
नाक पर रख चश्मा सरकाती
(जो वहाँ नहीं है)
मोहन
कुमार
शैलेश
सुप्रिया
कनक
को डाँटती
ख़ामोश रहो
चीख़ती
डपटती
कमरे में चक्कर लगाती है
हाथ पीछे बांधे
अकड़ कर
फ़्राक के कोने को
साड़ी की तरह सम्हालती
कापियाँ जाँचती
वेरी पुअर
गुड
कभी वर्क हार्ड
के फूल बरसाती
टेढ़े-मेढ़े साइन बनाती
वह तरसती है
माँ पिता और मास्टरनी बनने को
और मैं बच्चा बनना चाहता हूँ
बेटी की गोद में गुड्डे-सा
जहाँ कोई मास्टर न हो!
26 September, 2010
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
19 September, 2010
सांप होते हैं आस्तीनों में
र होता है अब महीनों में
ज़िन्दगी ढल गयी मशीनों में
प्यार की रोशनी नहीं मिलती
इन मकानों में, इन मकीनों में
देख कर दोस्ती का हाथ बढ़ाओ
सांप होते हैं आस्तीनों में
कहर की आँख से न देख इनको
दिल धड़कते हैं आबगीनों में
आसमानों की खैर हो या रब
एक नया अज़्म है ज़मीनों में
वोः मोहब्बत नहीं रही जालिब
हम-सफ़ीरों में, हम-नशीनों में
ज़िन्दगी ढल गयी मशीनों में
प्यार की रोशनी नहीं मिलती
इन मकानों में, इन मकीनों में
देख कर दोस्ती का हाथ बढ़ाओ
सांप होते हैं आस्तीनों में
कहर की आँख से न देख इनको
दिल धड़कते हैं आबगीनों में
आसमानों की खैर हो या रब
एक नया अज़्म है ज़मीनों में
वोः मोहब्बत नहीं रही जालिब
हम-सफ़ीरों में, हम-नशीनों में
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